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आ नो॑ दे॒वेभि॒रुप॑ दे॒वहू॑ति॒मग्ने॑ या॒हि वष॑ट्कृतिं जुषा॒णः। तुभ्यं॑ दे॒वाय॒ दाश॑तः स्याम यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā no devebhir upa devahūtim agne yāhi vaṣaṭkṛtiṁ juṣāṇaḥ | tubhyaṁ devāya dāśataḥ syāma yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

पद पाठ

आ। नः॒। दे॒वेभिः॑। उप॑। दे॒वऽहू॑तिम्। अग्ने॑। या॒हि। वष॑ट्ऽकृतिम्। जु॒षा॒णः। तुभ्य॑म्। दे॒वाय॑। दाश॑तः। स्या॒म॒। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:14» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:17» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थ और यति लोग परस्पर कैसे वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य दोषों के जलानेवाले ! आप (देवेभिः) विद्वानों के साथ (नः) हमारे (देवहूतिम्) विद्वानों से स्वीकार की हुई (वषट्कृतिम्) सत्य क्रिया को (जुषाणः) सेवन करते हुए हमको (उप, आ, याहि) समीप प्राप्त हूजिये हम लोग (तुभ्यम्) तुम (देवाय) विद्वान् के लिये (दाशतः) सेवन करनेवाले (स्याम) होवें (यूयम्) तुम (स्वस्तिभिः) सुख क्रियाओं से (नः) हमारी (सदा) सदा (पात) रक्षा करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थों को चाहिये कि सदैव पूर्ण विद्यावाले संन्यासियों का निमन्त्रण द्वारा प्रार्थना वा सत्कार करें, जिससे वे समीप आये हुए उनकी रक्षा और निरन्तर उपदेश करें ॥३॥ इस सूक्त में अग्नि के दृष्टान्त से यति और गृहस्थ के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चौदहवाँ सूक्त और सत्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्गृहस्थयतयः परस्परस्मिन् कथं वर्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! त्वं देवेभिः सह नो देवहूतिं वषट्कृतिं जुषाणोऽस्मानुपा याहि वयं देवाय तुभ्यं दाशतः स्याम यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (नः) अस्मानस्माकं वा (देवेभिः) विद्वद्भिस्सह (उप) समीपे (देवहूतिम्) देवैराहूताम् (अग्ने) पावक इव दोषदाहक (याहि) प्राप्नुहि (वषट्कृतिम्) सत्यक्रियाम् (जुषाणः) सेवमानः (तुभ्यम्) (देवाय) विदुषे (दाशतः) सेवमानाः (स्याम) भवेम (यूयम्) यतयः (पात) (स्वस्तिभिः) सुखक्रियाभिः (सदा) (नः) अस्मान् ॥३॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थैस्सदैव पूर्णविद्यानां यतीनां निमन्त्रणैरभ्यर्थना कार्य्या यतस्ते समीपमागताः सन्तस्तेषां रक्षां सत्योपदेशं च सततं कुर्य्युरिति ॥३॥ अत्राग्निदृष्टान्तेन यतिगृहस्थयोः कृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुर्दशं सूक्तं सप्तदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - गृहस्थांनी सदैव पूर्ण विद्वान संन्याशांना निमंत्रण देऊन प्रार्थना करावी किंवा सत्कार करावा ज्यामुळे त्यांनी जवळ असलेल्याचे रक्षण व निरंतर उपदेश करावा. ॥ ३ ॥